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विशेष-सोहाई बांधने की परंपरा शुरू-दीपावली से पुन्नी तक गूंजेगी लोकधुनें-घर घर जाकर राउत नाचा के रूप में लोगो को देते शुभ आशीष…

विशेष-सोहाई बांधने की परंपरा शुरू-दीपावली से पुन्नी तक गूंजेगी लोकधुनें-घर घर जाकर राउत नाचा के रूप में लोगो को देते शुभ आशीष…

गांवों में दीपावली की रात से शुरू हुआ नृत्य-गान का सिलसिला पुन्नी पर्व पर होगी समापन की पारंपरिक विधि

आरंग।दीपावली की जगमगाहट और रौनक के बीच गांवों में एक और खास परंपरा जीवंत हो उठी है। दीपावली की रात से ही यादव समाज के युवा और लोककलाकार पारंपरिक वेशभूषा में सजकर गांव-गांव, घर-घर घूम रहे हैं और लोकनृत्य, गीत, दोहे और सोहाई बांधने की सदियों पुरानी परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। यह सांस्कृतिक परंपरा दीपावली से शुरू होकर पूरे 15 दिनों तक चलती है, और इसका समापन पुन्नी पर्व को होता है।सोहाई बांधना एक लोक-सांस्कृतिक परंपरा है, जिसमें लोकगायक और कलाकार दीपावली के बाद घर-घर जाकर गाय चराने और गाँव की खुशहाली से जुड़े दोहे, गीत और पारंपरिक गाथाएं गाकर लोगो को शुभ आशीष देते हैं। इन गीतों में खेत-खलिहान, पशुधन, सामाजिक समरसता और लोकगाथाओं का उल्लेख होता है। कलाकारों के समूह को स्थानीय भाषा में ‘टोली’ कहा जाता है, जो नाचते-गाते हर घर के सामने प्रस्तुति देते हैं। घर के लोग इस टोली का स्वागत धन, अन्न या वस्त्र देकर करते हैं।यह परंपरा न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि लोकसंस्कृति, परंपरा, ग्रामीण जीवन और सामूहिक सहभागिता की जीवंत मिसाल भी है। इस नृत्य-गान के माध्यम से युवा पीढ़ी को अपने लोकगीतों और रीति-रिवाजों से जोड़ने का प्रयास किया जाता है।दीपावली के बाद लगातार 15 दिनों तक चलने वाला यह सांस्कृतिक सफर पुन्नी पर्व या जैठौनी (हिंदू पंचांग के अनुसार पूर्णिमा के दिन) को समाप्त होता है। इस दिन विशेष आयोजन होते हैं, जहां सभी टोली एकत्रित होकर अंतिम प्रस्तुति देती हैं और सामूहिक भोज या आयोजन के साथ इस परंपरा का समापन किया जाता है।गांव के बुजुर्गों के अनुसार यह परंपरा दशकों से चली आ रही है। पहले के समय में ढोलक, मंजीरा, नगाड़ा आदि वाद्ययंत्रों के साथ ये टोली निकलती थीं। आज भी परंपरा उसी रूप में निभाई जा रही है, हालांकि कुछ स्थानों पर आधुनिक वाद्ययंत्रों का प्रयोग भी देखने को मिलता है। युवाओं का उत्साह देखते ही बनता है, जो पारंपरिक पोशाक पहनकर इस सांस्कृतिक जिम्मेदारी को निभा रहे हैं।गांवों की यह लोकपरंपरा दीपावली की चकाचौंध से अलग सादगी, सामूहिकता और संस्कृति का परिचायक है। सोहाई बांधने की यह अनूठी परंपरा न केवल मनोरंजन है, बल्कि समाज को जोड़ने का मजबूत जरिया भी है। आवश्यकता है कि इस परंपरा को संरक्षित किया जाए और अगली पीढ़ियों को इसकी महत्ता से अवगत कराया जाए।
विनोद गुप्ता-आरंग

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